पहाड़ को चिदृठी लिखने के पहले की चिट्ठी |

 



पहाड़ मैं तुम्हें चिटुठी लिखना चाहता हूँ।


तुम बहुत दूर, ऊँचे और फैले हुए हो। पोस्टमैन तुम्हें चिट्‌ठी कैसे देगा? तुम बहुत बड़ी जगह में हो । किस जगह

 देगा? नीचे देगा या चढ़कर देगा? बहुत ऊपर शिखर तक नहीं जा सकेगा। उसे बहुत चिट्ठियाँ बॉँटनी होती हैं।

 परक्या तुम्हें पढ़ता आता है? क्या लिखना भी आता है? कहीं ऐसा तो नहीं पोस्टमैन को मेरी चिटृठी पढ़कर सुनानी 

हो? जवाब भी लिखाना हो ?


हो सकता है पोस्टमैन चिट्ठी नीचे किसी चट्टान के ऊपर रख दे और तुम्हारा एक छोटा पत्थर उठाकर चिट्ठी

पर रख दे ताकि हवा से ना उड़े। अगर पानी गिर गया तो चिट्ठी भीग जाएगी। शायद चिट्ठी बड़ी चट्टान के नीचे

खोह में रख दे। पहाड़ तुम जहाँ हो वहीं हो | और वहीं दूर से भी दिख जाते हो | तुम कहाँ हो यह मालूम हो जाता है।

दूर से तुम्हारा दिखना तुम्हारा बताना है कि तुम यहाँ हो। और दूर से ही दिखना तुम्हारा ज़ोर से चिल्‍्लाना है कि दूर

तक सुनाई दे। पर तुम बोलते नहीं। सुनते भी नहीं तुम्हारे कान होते तो बहुत बड़े होते | और मैं दूर घर की खिड़की

 से तुमसे बातें करता।


पहाड़ तुम पहाड़ हो | पहाड़े से पहाड़ का कोई सम्बन्ध है क्या? मुझे 49 का पहाड़ा याद नहीं होता | जब छुट्टी के

दिन होते हैं तब तुम मुझे घूमने में याद आते हो कि सब चलेंगे एक दिन। छुट्टी के दिन भी पहाड़ा याद करना

पड़ता है। मैं एक दिन तुम्हारे पास आऊँगा और तुमसे एक पत्थर उठा कर अपने घर लाऊँगा। इस तरह तुम्हें अपने

घर, साथ रख सकूँगा। फिर आऊँगा ताकि तुम्हारा पत्थर लौटा दूँ। अब मैं तुमको देखता हूँ तो मुझको लगता है तुम

मुझको भी देखते होगे। वहाँ तुम हो | और रहते हो तो खुले में रहते हो। या यह ठीक होगा कि पहाड़ हो और पहाड़

 में रहते हो | या खुद अपने में रहते हो | तुमने अपने लिए गुफा नहीं बनाई जिसके अन्दर तुम रह सको। बरसात धूप 

से बच सको। पर तुम्हारे अन्दर गुफा है क्या? गुफा तुम्हारा मन है। मैं ज़ोर-ज़ोर से पढ़ता हूँ तो सब कहते हैं मन

लगाकर मन में पढ़ो। मैं अपने मन में पढ़ नहीं सकता। तुम्हारे मन में आकर पढ़ सकता हूँ क्या

Previous Post Next Post